शनिवार, 4 फ़रवरी 2012

कविता सा कुछ

एक उंघते हुए शहर का बाशिंदा हूँ मैं.
धुआं उगलती चिमनियों से घिरा है शहर सारा
चाँद पे भी धुल जमी लगती है
हर कोई यहाँ खोया हुआ सा लगता है.

राह चलते कोई हरा पेड़ दिख जाये
या धुप थोड़ी सोंधी हो
तो घर की याद आ जाती है.

वो उस गली के मोड पे
जो फलवाला है
मेरे गाँव का है
अब रोज मिलता हूँ उससे.
कि इस शहर में वो अपना सा लगता है.

जाड़े की रातें यहाँ उतनी ठंडी नहीं हैं
पर मुझे ये गर्म रातें नहीं भातीं.
मैं कम्बल में दुबक कर सोना चाहता हूँ.
मुझे यहाँ नींद नहीं आती.
क्या करूँ ये शहर मुझे अपना नहीं लगता...

कविता सा कुछ

एक पिंजरा सा है
और
कोई कैद है उसमें..

मैं
उसे देखता हूँ
और
वो मुझे..

किसी ने बताया
वहाँ सिर्फ एक आईना है..

कविता सा कुछ

एक रिश्ता,
एक तलाश,
एक सच,
एक आकाश..

इतना कुछ देकर,
मेरे मन को छूकर,
हँसते हुए रोकर,
छुप गए यूँ ही,
दूर हो गए
बिना कुछ कहे ही... 

कविता सा कुछ

याद है..
इक खत लिखा था तूने
सुफेद कागज पे,
लाल स्याही से..

खत..
जिसके इक अक्षर पे
आंसू की इक बूँद गिरी थी..

वहीँ उस अक्षर पे मैं डूबा था..
रातें जाने  कितनी लगी
साहिल तक आने को
रातें जितनी तूने  काटी थी
इक खत लिखने को..

रविवार, 23 जनवरी 2011

college days...





















enjoying some sunshine....avi the gentleman...for abhi no comments..
abdur and me...you don't a get chance to get clicked with a genius everyday!!!

my room...my room...my room...


sarjana 2k4 ...the gang...
a party where everybody got gifts..6th apr.2006.

3 batches...simply the best days in sarjana...

गुरुवार, 18 नवंबर 2010

प्रेम गीत

कल रात तुम थी मेरी आँखों में
और जितने तारे थे
मैंने सब गिन डाले
एक अंगूठी थी जो खरीदनी थी.

सांसों के धागे से
एक आँचल बुनता रहा मैं
जिसे माथे पर डाले तुम खिलखिलाती

और मैं मुस्कुराता.

गीत जो बस्ती में
गाती है कोई दोशीजा
तो वो प्रेमगीत है ,
मैंने रात भर वो संगीत पीया है.

गुरुवार, 30 सितंबर 2010

सबकुछ कितना सिंपल है

सोचता हूँ अब कुछ कर लूँगा
तुम गुनगुनाओगी
तो रिकार्ड कर लूँगा.
तुम हंसोगी
तो चुन लूँगा.
विंडचाइम की तरह
खिड़की पे टांग लूँगा.
जब भी खिड़की खुलेगी
कमरे में तुम्हारी हंसी बजेगी.
बस तुम्हारी हंसी रहेगी.
उसी से सबा उसी से शब होगी.
और ये सोच कर लगता है
सबकुछ कितना सिंपल है
जैसे तुम्हारे गालों पे डिम्पल है.

कुछ ऐसा करेंगे
जब हम फिर कभी मिलेंगे
तुम ले आना
अपने हैण्डबैग में
अपनी थोड़ी सी दुनिया
वो थोड़ी थोड़ी दुनिया हम घर में लगा लेंगे
रंग लेंगे दीवारों पे
मेजों पे सजा लेंगे
रखे हैं गुलदान जहाँ
उन कोनों में बिछा देंगे.
वहीँ खिडकियों से आती
धुप का मलमल है.
और ये सोचकर लगता है
सबकुछ कितना सिंपल है
जैसे तुम्हारे गालों पे  डिम्पल है.

जब रातें गुजरेंगी
कुछ सपनों में लिपटी लिपटी
और सवेरे तुम जागोगी
महकी-महकी, सिमटी-सिमटी,
एक अदने शीशे की क्या औकात'
जो तेरे उस रूप को दिखलाये
इससे पहले की वोह
शर्म से खुद टूट कर गिर जाये
दीवार पे टांगने को एक नदी खरीद लेंगे
बजट में नहीं है पर एडजस्ट कर लेंगे
और ये सोचकर लगता है
सबकुछ कितना सिंपल है
जैसे तुम्हारे गालों पे  डिम्पल है